Thursday, September 24, 2015

आलेख हिंदी दिवस 2


करें सेवा हिन्दी की
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१५ सितम्बर का दिन यानि हिन्दी दिवस के नाम। हिन्दी यानि भारतीयों की राष्ट्र - भाषा , बहुतों की मातृभाषा। समझ नहीं आता गर्व करूँ या शर्मिंदा होऊँ ? अपनी ही भाषा के लिए एक दिवस औपचारिक रूप से निर्वाह कर, एक परम्परा भर निभाकर ...... । संसार में भारत ही ऐसा देश है , जहाँ अपनी राष्ट्र-भाषा को बताने के लिए , जताने के लिए, मानने के लिए दिवस मनाया जाता है। जोर-शोर से गोष्ठियाँ आयोजित की जाती हैं , विद्यालयीन स्तर पर अनेक प्रतियोगिताएँ आयोजित की जाती हैं , वगैरह वगैरह। दिन खत्म , औपचारिकता खत्म।
भारतीय-मानस में यह विचार बहुत गहरे पैठ बना चुका है कि हम हिन्दी भाषा के साथ प्रगति नहीं कर सकते। अगर उच्च सोपान पर पहुंचना है तो अंग्रेजी का दामन आवश्यक है , भले फिर हिन्दी का आँचल ढलक जाए , हम मूक-दर्शक बने रहेंगे। आखिर ये बीज बोया किसने ? ज़ाहिर है जवाब आएगा - अंग्रेजों ने। सत्य भी है , पर हम कब तक सिर्फ उन्हें ही दोषी ठहराते रहेंगे ? कुछ जिम्मेदारी तो हमारी भी बनती है न। जब हम उन्हें निकाल बाहर कर सकते हैं तो उनकी भाषा को क्यों नहीं ? विकास का आधार अंग्रेजी भाषा है , ये पूर्वाग्रह क्यों पाले बैठें हैं हम ? क्या चीन , जापान आदि विकसित राष्ट्र नहीं है ? क्या ये उनके अंग्रेजी भाषा के ज्ञान के कारण है ? नहीं न ? फिर क्यों हम भारतीयों को ही ऐसा लगता है ?
हास्यास्पद बात तो यह है कि जीवन में पग-पग के अनुभवों में देखा कि अंग्रेजी अन्य भाषाओं की तरह मात्र एक भाषा है , ये मानने की बजाय भारतीय “अंग्रेजी भाषा ज्ञान की कुंजी है” , ऐसा मानते हैं। जिन्हे अंग्रेजी भाषा का ज्ञान है , वह पूर्ण ज्ञानी है , ऐसी तो निराधार सोच है। बहुतों को जिन्हे अपनी अंग्रेजी भाषा के ज्ञान पर दर्प है , वे कभी अंग्रेजी भाषाविदों के साथ बैठें तो पाएँगे कि वे ख़ामख़ाँ तुर्रम खां बन रहे थे , न उन्हें उस भाषा की सही तकनीक पता है न व्याकरण ज्ञान ही है। ऐसे लोग न घर के हैं न घाट के। यहाँ मेरा उद्देश्य किसी का तिरस्कार करना नहीं है। भाषा कोई भी हो , वह सदा पूजनीय होती है। उस पर पूर्ण अधिकार पाना एक जीवन में संभव नहीं है। और बिना पूर्णता के हम जानकार नहीं हो सकते। फिर इस तरह की झूठी शान और झूठे गर्व के लिए अपनी भाषा के साथ खिलवाड़ क्यों ? अंग्रेजी एक अतिथि भाषा है , उसे उतना ही सम्मान दें जो एक अतिथि को दिया जाता है। उसके लिए अपनों की अनदेखी क्यों ? कोई शक नहीं , इसका मुख्य कारण भारतीयों की आत्महीनता है। किसी ने जरा अंग्रेजी बोली नहीं कि समझ बैठे उसे विद्वान। अरे भाई ! पृथ्वी गोल हिन्दी में है तो अंग्रेजी में भी गोल ही है। भला ज्ञान का भाषा से क्या सम्बन्ध ? ज्ञान और भाषा दो जुदा शब्द हैं। हिन्दी से ये वैराग्य भाव भारतीयों के लिए कितना अहितकर है , सोचते ही डर लगता है।
किसी भी देश की पहचान उसके साहित्य से होती है। ये अमूल्य धरोहर होती है देश की संस्कृति की , विचारों की , अनुभवों की। जो पीढ़ी दर पीढ़ी सहेजी जाती हैं , बड़ाई जाती हैं। परन्तु जब देश की भाषा ही पतन की ओर अग्रसर होगी तो नया साहित्य कैसे रचा जायेगा ? जो रचा जायेगा क्या वो सार्थक होगा ? हमें शुक्रगुज़ार होना चाहिए उन गंभीर , समर्पित रचनाकारों के प्रति , जिनके कारण आज भी चिंगारी के कण बिखरे दिखाई पड़ते हैं , जरुरत है उन चिंगारियों को भड़काने की , ताकि हिन्दी की लौ घर-घर,द्वार-द्वार जल सके।
विडंबना है कि भाषा भी अमीरी-गरीबी में बंट चुकी है। हिन्दी को दरिद्रों की और अंग्रेजी को अमीरों की भाषा कहने - समझने वाला ये देश अपनी ही जड़ों को खोखली कर रहा है। अगर हम हिन्दी को स्वयं सम्मान की दृष्टि से देखेंगे , अपनाएँगे , आत्मविश्वास के साथ बोलेंगे तो दुसरे लोग भी स्वयं सम्मान देने को विवश हो जाएँगे। कमी हमारे भीतर ही है जो हम अपनी ही भाषा को बोलने में झिझकते हैं।
और राज्यों का तो पता नहीं , परन्तु मध्य-प्रदेश की सामान्य हिन्दी की पुस्तकों में व्याकरण में न रस है , न छंद है , न अलंकार है , न शब्द-गुण या शब्द-शक्ति ही। जिस किसी कक्षा में है भी तो सिर्फ सामान्य परिचय भर। बताइये ऐसे में भला हिन्दी भाषा की दुर्गति नहीं होगी तो क्या होगा ? क्या इस तरह कोई विद्यार्थी एक सफल साहित्यकार बन पायेगा ? हम बड़ी-बड़ी बातें भले ही कर लें , परन्तु कोई ये बताये कि नई पीढ़ी शुद्ध व्याकरण वाली हिंदी कहाँ से सीखे ? अंग्रेजी माध्यमों में पढ़ने वाले विद्यार्थियों से हम - आप क्या उम्मीद कर सकते हैं ? सरकारी विद्यालयों की स्थिति भी किसी से छिपी नहीं है। जो हिंदी भाषा के ज्ञाता हैं , वे भी अधिकांशतः लेखन आदि कार्यों से जुड़े हुए हैं। अनुभव आधारित आकलन रहा है कि आज के अधिकांश हिन्दी भाषा के शिक्षक भी शब्दों का सही उच्चारण , बिंदी का ज्ञान , तथा सतही व्याकरण ज्ञान भी नहीं रखते हैं। ऐसे में हिन्दी भाषा का भविष्य क्या होगा , बताने की जरुरत नहीं।
हालाँकि ‘ सोशल-साइट्स ‘ पर हिन्दी प्रचार-प्रसार की सुखद बयार दृष्टिगोचर हो रही है। अनेक युवा भी हिन्दी साहित्य की ओर अग्रसर हो रहे हैं , हिन्दी भाषा की उन्नति के लिए कार्य भी कर रहे हैं , परन्तु उसमें भी कई बार वर्तनी अशुद्धि सारी हदें पार कर जाती है। उनमें धैर्य और गंभीरता का अभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है। कई बार उन्हें उचित मार्गदर्शक नहीं मिलते और कई बार वे स्वयं मार्गदर्शकों को अपने झूठे अहंकार के कारण दरकिनार कर देते है।
अंत में यही कहूँगी कि बहुत हुआ दिवसों का मानना - मनाना। यदि वास्तव में हिन्दी भाषा को उसका उचित स्थान दिलाना चाहते हैं तो शुरुआत स्वयं से करें। समय अवश्य लगेगा , परन्तु परिणाम भी सकारात्मक ही होंगे , हममें से कितने साहित्यकार हैं , जो अपने बच्चों को हिन्दी माध्यम से शिक्षा दिलवा रहे हैं ? बहुत ही विडंबनापूर्ण तथ्य है कि भारत के अतिरिक्त कोई देश नहीं , जहाँ बालकों की शिक्षा विशेषकर प्राथमिक शिक्षा विदेशी भाषा द्वारा होती है। बहुत ही गंभीर और विचारणीय है कि भारत के पास अनेकों अनेक भाषाएँ होते हुए भी उसे विदेशी भाषा की दरकार क्यों है ? अब वक्त है इसके बाज़ारीकरण को रोक उचित सम्मान देने की। आइये इस दिवस हम संकल्प करें कि वर्ष भर हिन्दी की उचित सेवा करेंगे , इसे हृदय से स्वीकारेंगे , मजबूरी से नहीं।

मौलिक और अप्रकाशित

आलेख हिंदी दिवस


हिन्दी में क्षेत्रीय भाषाओँ के शब्द जोड़े जाएँ या नहीं ? // शशि बंसल
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भारत देश एक बहुभाषी राष्ट्र है। जहाँ अंग्रेजी जैसी विदेशी भाषा के अतिरिक्त अनेक प्रकार की भारतीय भाषाएँ , उपभाषाएँ , आंचलिक भाषाएँ , बोलियाँ , उपबोलियाँ आदि बोली जाती हैं। हिंदी सहज , सरल एवं वैज्ञानिक भाषा है ,जिसने बिना किसी भेदभाव और पूर्वाग्रह के उदारता का परिचय देते हुए अपनी वैज्ञानिकता को क्षति पहुँचाए बिना सहज ही समस्त विदेशी , देशी , आगत , तत्सम आदि शब्दों को अपने भीतर सुगंध की तरह समा लिया है। वासुदेवशरण अग्रवाल ने कहा है कि --" हिन्दी भाषा उस समुद्र जलराशि की तरह है , जिसमें अनेक नदियाँ मिली हों।" सरलता से कहें तो हिन्दी उस माँ की तरह है जो अपने पुत्र के मित्रों को भी वही स्नेह और सम्मान देती है। वह अपने - पराये का भेद नहीं करती। अब प्रश्न यह है कि अन्य भाषा के शब्द हिंदी के लिये आशीर्वाद है या अभिशाप ? मेरी दृष्टि में तो ये किसी आशीर्वाद से कम नहीं है।

पृथ्वी पर ऐसी कौन सी वस्तु है जो मूल रूप में है , सभी भाषाएँ परिवर्तन के दौर से गुजर रही हैं। फ़ारसी , जर्मनी , फ्रेंच , अंग्रेजी आदि सभी विकसित , विस्तृत भाषाओ ने भी दूसरी भाषाओं के शब्दों को निःसंकोच अपना लिया है तो फिर ,हिन्दी भाषा में अन्य भाषा के शब्दों के उपयोग को लेकर दुराग्रह क्यों ? आज अन्य भाषा के शब्दों में विशेषकर अंग्रेजी भाषा के शब्दों का विरोध अधिक होता है। जबकि उसको बोलने वालों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। अंग्रेजी ने तमाम भाषाओं से शब्द ग्रहण कर अपना विस्तार किया है , शब्दकोष को बढ़ाया है।जिसका परिणाम सबके समक्ष है। "उदाहरण आप सभी प्रबुद्ध वर्ग जानते हैं , शब्द की उत्पत्ति एवं विकास के ज्ञान के विषय में मेरा ज्ञान आपके ज्ञान की तुलना में क्षीण है।" साहित्य के क्षेत्र में तो सदैव ज्ञान का आदान - प्रदान होता रहता है , उसी से भाषा में व्यापकता भी आती है। पारस्परिक संपर्क के कारण सभी भाषाएँ अन्य भाषाओँ के शब्दों को स्वीकार कर लेती है। जो शब्द सहजता व सरलता के साथ अन्य भाषाओं से जुड़ते चले जाते हैं वे उसका हिस्सा बन जाते हैं और निश्चित ही भाषा के शब्दकोष में बढ़ोतरी करते हैं , अगर यही प्रयोग हिन्दी भाषा के साथ भी हो रहा है तो गलत क्या है ? यदि हम चाहते हैं कि कोई भी भाषा चिरंजीवी बनी रहे तो इसके लिए आवश्यक है कि वह मूल स्वरुप खोये बिना प्रयोगात्मक नए शब्द शामिल करे।

भाषा की समृद्धि में उस भाषा द्वारा अन्य भाषाओं के शब्दों को अंगीकृत करने की शक्ति का अपना महत्त्व है। भाषा की उन्नति व वर्धन के लिए उसका सर्वगाह्य होना आवश्यक है। यदि परिस्थिति व परिवेश के अनुसार अन्य भाषा के शब्द प्रयोग किये जाते हैं तो वे अभिशाप न बनकर वरदान बन जाते हैं। पानी बहे नहीं तो वह सड़ जाता है। मैं भाषा की शुद्धता को विद्यमान रखने के विरुद्ध नहीं हूँ पर क्या हम शुद्ध सोना पहन सकते हैं ? नहीं न। फिर जिस देश की " टेग - लाइन " ही हो - " कोस-कोस पानी बदले , कोस-कोस बानी ",वहाँ हम हिन्दी की शुद्धता की बात कैसे कर सकते हैं ?क्या ऐसा सकता है कि तीव्र वेग से बहती नदी अपने मार्ग में आने वाली कोमल वनस्पतियों को बहा कर न ले जाये ? क्या वे उसके प्रवाह में बाधक हैं ? क्या इससे नदी की सुंदरता में वृद्धि नहीं होती ? हिन्दी भाषा इतनी कमजोर नहीं कि वह चंद देशी-विदेशी शब्दों के प्रवेश से लड़खड़ा जाये। पाठकों की रूचि, भाषा के प्रवाह और उसकी सर्वगाह्यता को बनाये रखने के लिए आम प्रचलित शब्दों का प्रयोग कतई अनुचित नहीं है। जितने नए-नए शब्दों को हिंदी भाषा का प्रश्रय मिलता जायेगा उतना ही वह सर्वगाह्य हो नए लोगों को अपनी ओर आकृष्ट करती जायगी। यदि हम शुद्धिकरण की जिद लेकर बैठ गए और कठोर नियमों की बेढ़ियों में जकड़ते चले गए तो हिन्दी का हश्र भी संस्कृत भाषा के समान हो जायेगा जो आज मृतप्राय है।

अंग्रेजी भाषा के अधिक प्रयोग के कारण कहा जाता है कि भारतीय आज एक नई भाषा " हिंग्लिश " का प्रयोग कर रहे हैं। मैं पूछना चाहती हूँ कि फिर क्यों नहीं हमने बोलियों , उपभाषाओं के शब्दों के प्रयोग पर उसे भी नई भाषा के नाम से सुशोभित कर दिया ? माफ़ी चाहते हुए कहूँगी कि साहित्यकार अपनी रचनाओं में अलग-अलग परिवेश व देशकाल के अनुसार पात्र की भाषा प्रयोग करते हैं जो कि रूचि , प्रवाह व रचना को यथार्थ रूप देने के लिए अत्यंत आवश्यक है। यदि इसके स्थान पर शुद्ध हिन्दी भाषा का प्रयोग किया जाये तो फिर साहित्य आगे बढ़ पायेगा उससे अधिक से अधिक पाठक जुड़ पाएंगे ?क्या इस तरह से हम प्रेमचंदजी को कठघरे में नहीं खड़ा कर देते हैं ? क्यों उन्हें हम हिन्दी साहित्य में उपन्यास सम्राट की उपाधि दिए हुए हैं ? उन्होंने ठेठ देहाती और उर्दू शब्दों का प्रयोग नहीं किया ? क्या हम फणीश्वरनाथ रेणु के लिए भी प्रश्नचिन्ह खड़ा नहीं करते हैं जो आंचलिक भाषा के शब्दों का प्रवीणता के साथ प्रयोग करके जन-जन तक पहुंचे ? महावीर प्रसाद द्विवेदी ने सरस्वती पत्रिका के सम्पादक रहते हुए हमेशा लेखकों की भाषा को सरलीकृत करते हुए उसे अधिसंख्यक साधारण पाठकों की समझ आने लायक बनाया बिना ये सोचे कि वह शब्द अरबी का है , फ़ारसी का है या अंग्रेजी का। वे सदैव पाठकों की रूचि का ध्यान रखते थे । क्या इन सब को हिन्दी भाषा से इतर दूसरी भाषा का समझा जाये ? या उनके लेखन से हिन्दी साहित्य समृद्ध नहीं हुआ ? सत्य तो यह है कि हिन्दी भाषा का कभी भी अन्य भाषाओं से कभी कोई संघर्ष नहीं रहा।

शुद्ध हिंदी की गरिमा को नकारा नहीं जा सकता है। प्रबुद्ध वर्ग कहता है कि हिन्दी भाषा समृद्ध है। उसे अन्य किसी भाषा के शब्दों की आवश्यकता नहीं। इससे भाषा में विकृति आती है , माना। पर ये भी कटु सत्य है कि अत्यधिक शुद्धिकरण वास्तव में अंग्रेजीकरण का सबसे बड़ा सहायक है। यदि सभी भाषा - भाषी शुद्धिकरण प्रक्रिया को गाँठ की तरह बाँध लेंगे तो इससे पहले भाषाओं के बीच और फिर लोगों के बीच खाई बढ़ती जाएगी और सभी भाषाएँ सिमटकर रह जाएँगी। यही नियम हिन्दी भाषा पर भी लगता है। इस सहज प्राकृतिक प्रक्रिया को रोका गया तो यह हिन्दी भाषा के लिए आत्मघाती कदम होगा। उसके विस्तार में बाधक होगा। भली-भांति जानती हूँ कि भाषा क्षेत्र के विकास से जुड़ा प्रबुद्ध वर्ग इस तरह के प्रयोगों के विरुद्ध है। उनके अनुसार इस तरह हिन्दी अपना मूल स्वरुप खो देगी . इसी तरह नई -नई भाषा के शब्द जुड़ते रहेंगे तो एक दिन हमारे सामने एक बिलकुल नई भाषा होगी। इसके लिए विकल्प तो बहुत दिए गए हैं पर उनमे से कितनों ने मूर्त रूप लिया है ?युद्ध स्तर पर भी प्रयास किया जाएँ तो भी हम हिन्दी भाषा से अन्य भाषा के शब्द नहीं हटा सकते। क्यूंकि हिन्दी में शुद्धिकरण के कारण रिक्तियां पैदा होती गई। लोगों ने अपनी-अपनी सुविधा के अनुसार समझ आने वाले शब्द भर दिए बिना ये सोचे कि वे किस भाषा से सम्बन्ध रखते हैं। जिस देश का इतिहास अनेक आक्रमणकारियों से दमित रहा है उस देश में भाषा का प्रभाव ना पड़े यह कैसे हो सकता है ? अब आप इसे विडम्बना कहे या मजबूरी मेरी नज़र में ये वरदान ही है। अन्य भाषा के शब्दों को अपने स्वरुप में ढालना एक बहुत बड़ी कला है। आज ये शब्द दूध-पानी की तरह एक हो गए हैं। हिन्दी ने इन शब्दों को सहर्ष शिरोधार्य कर लिया है . अगरचे आप इसे संकीर्णता से ऊपर उठकर देखेंगे तो आपको भी इसकी पवित्रता व मीठेपन का अहसास होगा। भारतीय संस्कृति " अतिथि देवो भव "और " वसुधैव -कुटुंबकम " की रही है जैसे एक परिवार की व्यावहारिकता और प्रशंसा का मानक उसके यहां आने वाले आगंतुकों - अतिथियों से माना जाता है वैसी ही उदारता हिन्दी को आगे भी जारी रखनी होगी। इसे अवगुण न समझकर वरदान समझना होगा क्यूंकि आज हिन्दी में रच बस गए अनगिनत शब्द इतने अपने हो चुके हैं कि उनके बिना हिन्दी सूनी हो जाएगी। मैं तो कहूँगी कि इसे हिन्दी भाषा के नए स्वरुप में स्वीकार लिया जाये। माना जाये कि वह आधुनिक और पारम्परिक आभूषणों से सजी ऐसी दुल्हन है जिसकी सुंदरता व पवित्रता पर कोई प्रश्नचिन्ह नहीं लगा सकता।



हिन्दी की शुद्धता को लेकर तर्क दिए जाएँ परन्तु कोई ये बताये कि नई पीढ़ी शुद्ध व्याकरण वाली हिन्दी सीखे कहाँ से। अंग्रेजी माध्यमों में पढ़ने वाले विद्यार्थियों से आप क्या उम्मीद कर सकते हैं सरकारी पाठशालाओं की स्थिति जग जाहिर है। जो हिन्दी के ज्ञाता हैं वे अधिकांशतः लेखन आदि कार्य से जुड़े हुए हैं . कुशल शिक्षकों के अभाव में बताइये भला किस मार्ग से आप शुद्ध हिन्दी प्रचारित - प्रसारित करेंगे ?दूरसंचार के समस्त माध्यमों ने वैसे भी भाषा की एक नई परिभाषा गढ़ दी है। प्रत्येक भाषा में अन्य भाषा के शब्द शुद्ध व विकृत रूप में आ गए हैं जिन्हें उनकी सरलता और बोधगम्यता के कारण अपना लिया गया है। अब हमारे पास पीछे मुढ़कर देखने का समय नहीं है। यदि हम चाहते हैं हिन्दी भाषा आगे बढे तो ख़ुशी-ख़ुशी उसे अपने अंदर सहजता से आये दूसरी भाषा के शब्दों के साथ आगे बढ़ने देना चाहिए उसके मार्ग में अनावश्यक रुकावट नहीं डालना चाहिए। अधिक से अधिक युवाओं को हिन्दी भाषा से जोड़ने के लिये और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार्यता दिलाने के लिये हमें कूपमंडूकता से ऊपर उठना ही होगा। इससे न हिन्दी भाषा की प्रगति रुकेगी और न विकास। बल्कि इस कदम से ये अंतर्राष्ट्रीय महत्तव की भाषा हो जाएगी। संसार में ऐसा कोई देश नहीं है जहाँ बालकों की शिक्षा विदेशी भाषाओं द्वारा होती है। जो लोग हिंदी में अन्य भाषा के शब्दों विशेषकर अंग्रेजी से नाखुश हैं मैं पुनः हाथ जोड़कर क्षमा मांगते हुए पूछना चाहूँगी क्या उनके पुत्र - पुत्री हिन्दी माध्यम से शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं ? क्या उनकी संतति भी उनकी तरह भाषा शुद्धता अभियान को आगे बढ़ा पायेगी ? अपवाद छोड़ दिए जाएँ तो उत्तर सबको पता है। जब सब कुछ देश काल वातावरण की बाध्यता है तो फिर हिन्दी की शुद्धिकरण की तटस्थता को त्याग यहाँ भी उदार होना ही पड़ेगा।

वैश्वीकरण का दौर है। हिंदी के समक्ष भी बहुत अधिक चुनौतियाँ हैं। आज उसे फ़ैलाने से ज्यादा बनाये रखना आवश्यक है और ये कोई बहुत आसान कार्य नहीं है। जब लाखों शब्दों को बाहर से लेने पर भी अंग्रेजी का स्वरुप बिगड़ने के स्थान पर दिन ब दिन बढ़ रहा है तो हम हिंदी में अन्य भाषा के शब्दों को लेकर क्यों विचलित हो रहे हैं ? डर रहे हैं ? अंग्रेजी ने शायद ही कोई भाषा हो जिससे कुछ न कुछ लिया ना हो। इस तरह तो हम हिंदी का समस्त क्षेत्रीय भाषाओं से भी वैमनस्य बढ़ा देंगे। यदि हिंदी को बाजारीकरण से परे भी राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मंच पर मजबूती से ज़माना है तो अन्य भाषा के शब्दों को जो सहज ही आते चले जा रहे हैं उनको तिरस्कृत करने से बचना होगा। एकला चलो की नीति छोड़नी होगी , नहीं तो हिंदी को सिमटने में देर नहीं लगेगी।

क्षमा चाहती हूँ हिंदी भाषा के शिक्षाविदों से, इस आलेख में यदि कोई तकनीकी गलती कर बैठी हूँ , या कोई तथ्य गलत दे बैठी हूँ तो कृपया, मुझे अल्पज्ञानी समझकर क्षमा करें व मेरा मार्गदर्शन करें ।धन्यवाद ।

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मौलिक व अप्रकाशित।

बुनियाद ( लघुकथा 81 )


बुनियाद ( लघुकथा )

" मेडम , बेटी का औसत वार्षिक परीक्षा परिणाम देखकर मैं बहुत हैरान हूँ । उसकी मेहनत को देखते हुए प्रथम श्रेणी से कम की बिलकुल उम्मीद न थी मुझे ।"

" मिo बनर्जी , आपकी बेटी पढ़ाई में औसत है , उसे उत्तम परीक्षा परिणाम के लिए योग्य ' ट्यूटर ' की सख़्त आवश्यकता है , इसकी लिखित सूचना सत्र के प्रारम्भ में ही दे दी गई थी ।"

" जी । मैंने भी लिखे अनुसार फ़ौरन बेटी के लिए योग्य ' ट्यूटर ' की व्यवस्था कर दी थी । "

" ' ट्यूटर ' की योग्यता क्या हो ? ये संकेत भी समझ लेते तो ....। "

मौलिक व अप्रकाशित ।

विभ्रम ( लघुकथा 80 )


विभ्रम ( लघुकथा )
चित्र आधारित प्रतियोगिता के लिए

बस गंतव्य की ओर बढ़ रही थी कि प्रथम सीट पर बैठे दो व्यक्ति अचानक हरक़त में आ गए ।एक ने ड्राइवर की कनपटी पर बंदूक टिका बस को जंगल की ओर मोड़ने का आदेश दिया तो दूसरे ने सभी यात्रियों से कीमती सामान उतारकर देने को कहा , साथ ही फ़रमान जारी कर दिया कि बस के जंगल में पहुँचते ही सिर्फ पुरुष यात्री ही बस से उतरेंगे । अपने भविष्य की दुर्गति सोच महिला सवारी सकते और दहशत में आ गईं । तभी पास खड़ी पुरुष सवारियों ने आपस में कुछ इशारे किये और धीमे से उन बंदूक धारियों के पास पहुँच गए ।कायर और मूक भीड़ के आदी बदमाशों को संभलने का मौका ही नहीं मिला और वे पीटकर लस्त-पस्त हो गए । हर्ष के अतिरेक में एक महिला सवारी ने जब उन वीरों को धन्यवाद कहना चाहा तो उनमें से एक बोला - " मेडम धन्यवाद तो तभी मिल गया था , जब सीट न मिलने की वज़ह से पास खड़े होने पर आपने पलट के शंकित नज़रों से हमें डांटा था । "
शशि बंसल
भोपाल ।

सत्य ( लघुकथा 79 )


सत्य ( लघुकथा )
चित्र आधारित प्रतियोगिता से बाहर

" आपकी कल्पना - शक्ति और लेखन - कौशल को परखने के लिए जो चित्र मैंने आपको दिया था , उस पर सभी के विचारों का आधार एक ही देखकर , मैं बहुत हैरान हूँ ।जानना चाहता हूँ कि क्या सार्वजनिक वाहन में सवार हर लड़का आवारा और हर लड़की अबला ही होती है ? " अध्यापक ने लड़कियों की कक्षा में प्रश्न किया ।
" सर , आप ही तो कहते हैं , सत्य सौ बार भी बोला जाये तो भी उसकी ध्वनि एक ही होती है । "
शशि बंसल
भोपाल ।

सम्मान ( लघुकथा 78)


सम्मान ( लघुकथा 78)

" ए लड़की ठीक से बैठ । "
" अरी ओ , तू आज फिर कल वाली फ़्रॉक पहन आई ।"
" सुन तो , जाके नीचे से चपरासी को तो बुला के ले आ । "
बगल की कक्षा से तिरस्कार सूचक आवाजें सुन तिलमिला जाती वसुधा । एक दिन निश्चय कर वह अपनी कक्षा छोड़ उसकी कक्षा में जा पहुँची और कहा " आप शिक्षिका होकर भी बच्चों से इस तरह बात क्यों करती हैं ? ऐसे तो ये कभी किसी शिक्षक का सम्मान नहीं करेंगे । "
" आपसे किसने कहा , हम गरीब मजदूरों के बच्चों से सम्मान पाने यहाँ आते हैं ? "

आज़ादी ( लघुकथा 77 )



आज़ादी
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मेरा दफ़्तर आम दफ़्तर की तरह ही है । न बहुत छोटा न बहुत बड़ा । कर्मचारी भी ठीक आम दफ़्तर की तरह ही । कुछ काम से जी चुराने वाले , कुछ चाय की चुस्कियों के साथ खी-खी कर ठट्टा मारने वाले , कुछ पूरी तरह फ़ाइल में मुँह घुसाए काम में तल्लीन मुर्ख उपाधि प्राप्त और कुछ खूबसूरत अदाएँ बिखेरती बॉस के इर्द-गिर्द मंडराती सेक्रेटरी नुमा चिर युवा बालाएँ , बेफ़िक्र बॉस ।आखिर वो भी वैतनिक ठहरा ।क्यों किसी से पंगा ले । काम तो निबट ही रहा है ।ये अलग बात है न्याय के सिद्धांत की अनदेखी हो रही है । आज स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर झंडा-वंदन के लिए सभी दफ़्तर में एकत्र हैं ।देशभक्ति के गीतों की गूँज से वातावरण वीर रसमय हो गया है ।सब बॉस की प्रतीक्षा कर रहे हैं ।वह केबिन में बैठा अपने खास कर्मचारियों से मंत्रणा करने में व्यस्त है " मुझे विद्रोह की चिंगारी सुलगती दिख रही है , जिसे समय रहते बुझाया जाना जरुरी हो गया है ।वरना वह दिन दूर नहीं जब हम भी फाइलों में मुँह घुसेड़े बैठे होंगे ।" ये कहते हुए वे प्रांगण में आ गए और स्तम्भ के पास पहुँचकर सहसा ये कहते हुए पलटे " मैं अपने कर्मठ कर्मचारी सुरेश जी से निवेदन करूँगा कि आज वे ' हमारी ' आज़ादी की पताका फहरायें ।" कर्मठ उर्फ़ मूर्खों को मिले अप्रत्याशित सम्मान से कदम गर्व से बढ़ चले थे और उनके कदमों तले विद्रोह की चिंगारी राख़ में तब्दील हो रही थी ।

शशि बंसल
भोपाल ।